मंगलवार, जून 21, 2011

Brook Hill Hostel


ब्रुक हिल हॉस्टल:
१. इसको लोग बुर्खिल होसटिल भी कहते थे.
२. शाम को फील्ड में क्रिकेट खेलते थे.
३. मैस में खाने की सुबह जल्दी और शाम को बड़ा इन्तेजार रहता था. वैसे मैस कम ही चलती थी, कमरे में बनी चाय और खाने का मजा ही और था.
४. पूरे ११ साल तक हमारे चीएफ़ वार्डेन साहिब डा. जगदा ही थे. भले आदमी थे.
५. दो चाय की दुकाने थीं. बहुगुणा की और ठाकुर की. कभी एक  के पास ज्यादा उधार हो जाए, तो फट से दूसरे को पहले दिन नकद दे देते थे.   कमरे में चाय पहुचाने ठाकुर साब का बफादार छोटा लड़का था.  उसकी बड़ी याद आती है. 
६. सड़क के पार एक चर्च था. हम वहां एक्साम टाइम में पढने जाते थे. 
The nostalgic photographs from Brook Hill Hostel Nainital:

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Very happy to see the pictures of Brook hill hostel. The mess keeper was Ram Singh, we use to call him Ramda. Became very nostalgic, thanks

आशुतोष उपाध्याय ने कहा…

बुर्खिल (ब्रुकहिल) हॉस्टल में कई बैरकें थीं, जिनमें दाईं ओर सबसे ऊपर वाली 'रिसर्च' बैरक कहलाती थी. न, न यहाँ कोई रिसर्च-विसर्च नहीं होती थी, अलबत्ता कुछ रिसर्च स्कॉलर यहाँ ज़रूर रहते थे. ये लोग नाना प्रकार की हरकतों के अलावा कुमाऊं यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करते थे. ये बुद्धिजीवी टाइप के लोग थे और बाकी बैरकों में रहने वाले छात्रों में इनका खासा रसूख हुआ करता था. यूं तो ये हिंदी, राजनीतिशास्त्र, फिजिक्स, बोटनी और जूलॉजी जैसे विषयों में शोध कर रहे थे, मगर इनमें से ज्यादातर की दिलचस्पी बुनियादी रूप से मानव शरीर और मनोविज्ञान में थी. यहाँ आये दिन होने वाली बौद्धिक चर्चाओं में यही विषय छाये रहते थे. प्रेम की अवधारणा में इनका जबरदस्त यकीन था और बैरक से सामने की सड़क पर किसी कन्या/महिला के नमूदार होते ही, वे जहाँ थे/जैसे थे की अवस्था में एक साथ बाहर प्रकट हो जाते थे. हॉस्टल के आसपास की इमारतों में रहने वाले परिवार इस समुदाय को कुछ अच्छी निगाह से नहीं देखता था. इसलिए हॉस्टल की ओर खुलने वाली उनकी खिड़कियाँ अक्सर बंद रहती थीं. मगर यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. महापुरुषों की पहचान अक्सर अपने समय में कब हो पाई है!

इस बैरक के चार कमरों में बाएं से दूसरे वाले में कई सालों तक प्रेम जी बल्लभ बिष्ट साहब का कब्ज़ा रहा. वह उस घनघोर प्रजाति के रिसर्च स्कॉलर थे, जो कुमाऊं यूनिवर्सिटी में बड़ी विरल संख्या में पाए रहे. उन्हें अपने एक्सपेरिमेंट्स के लिए अकसर देर रात लेबोरेटरी में रुकना पड़ता था. वह कुत्तों से बहुत घबराते थे, इसलिए रात को सुरक्षित हॉस्टल वापसी के लिए झोले में दिवाली छाप हथगोले रखना नहीं भूलते थे. जब कुत्ते पीछा नहीं छोड़ते तो ये हथगोले उनके बड़े काम आते. बिष्ट साहब संगीत प्रेमी भी थे, लेकिन उनकी पसंद निराली थी. एक तरफ गुलाम अली की गज़लें तो दूसरी तरह ब्रूस स्प्रिंगस्टीन का हाहाकारी पॉप, जिस पर उन्होंने एक बार सार्वजिनक रूप से लक्कड़ डांस भी किया था. ऐसे अद्भुत मौकों पर उनकी बालविहीन टांगों पर बैरक के दूसरे महारथी लार टपकाने से बाज नहीं आते थे. उनकी इसी टांग पर एक रात एक बेहद शर्मीला केकड़ा फ़िदा गया. इस निरीह जीव को उनके रूमसखा और जूलॉजी के शोधछात्र अपने शोध के लिए कुमाऊं की किसी नदी से खोजकर लाये थे. बहरहाल, अनजाने में हुई इस भूल की कीमत केकड़े को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.

कालांतर में कतिपय ऐतिहासिक कारणों से बिष्ट साहब को कविताई का शौक चर्राया. फिजिक्स की तरह उन्होंने कविता में भी नई खोज की और 'सिलिंडर कविता' का सूत्रपात किया. सिलिंडर यानी रसोई गैस का सिलिंडर. कविता की इस विधा के आज वह दुनिया में अकेले कवि हैं. इन कविताओं की खूबी थी कि वे चाहे किसी भी मुद्दे पर लिखी जांय, सिलिंडर का जिक्र उनमें ज़रूर आता था. नैनीताल के मशहूर रंगकर्मी ज़नाब ज़हूर आलम साहब ने बिष्ट साहब की लिखी कई सिलिंडर कविताओं बड़े अदब से संजोया हुआ है.