रंज की जब गुफ्तगू होने लगी------
गुलाम अली साहब की ये ग़जल अचानक तब याद आई जब एक कपडा धोने लगा सर्फ़ (डिटर्जेंट) से--- शायद ब्रूकहिल का माहोल याद आ गया --
साथ ही पता चला कि ये राग "भूप कल्याण" (भूपाली) है
लीजिये जरा लम्बा है - करीब २५ मिनट क।
http://www.youtube.com/watch?v=r4kljPiHpIw
आखिरी शेर जरा जोरदार है.
" दाग इतराये हुए फिरते हैं आज
शायद उनकी आबरु होने लगी"
ये गजल नवाब मिर्जा खान ( दाग देहलवी ) Nawab Mirza Khan की लिखी है -- (1831--1905) نواب مرزا خان, commonly known as Daagh Dehlvi داغ دہلوی
गुलाम अली साहब की ये ग़जल अचानक तब याद आई जब एक कपडा धोने लगा सर्फ़ (डिटर्जेंट) से--- शायद ब्रूकहिल का माहोल याद आ गया --
साथ ही पता चला कि ये राग "भूप कल्याण" (भूपाली) है
लीजिये जरा लम्बा है - करीब २५ मिनट क।
http://www.youtube.com/watch?v=r4kljPiHpIw
आखिरी शेर जरा जोरदार है.
" दाग इतराये हुए फिरते हैं आज
शायद उनकी आबरु होने लगी"
ये गजल नवाब मिर्जा खान ( दाग देहलवी ) Nawab Mirza Khan की लिखी है -- (1831--1905) نواب مرزا خان, commonly known as Daagh Dehlvi داغ دہلوی
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