शनिवार, जुलाई 04, 2009

गेलकी भी गिर जाए तो गिरने दो! Gelki bhi gir jay to girne do

बचपन की ढेर सारी वो कहानियाँ जिनसे ऐसा लगता है कि में प्रभावित हुआ, उनमें से कई सारी माँ ने दाल-भात के पकने के लिए इंतजार करते समय (अक्सर कच्ची या भीगी हुई लकडिया खाना पकाना दूभर कर देती थी) कई-कई बार सुनाई थी। पेश है उनमें से ए़क:
हमारे नाना जी टनकपुर में उचौली गोठ ( Ucholigoath) में रहते थे। बात उन्ही दिनों कि है जब जिम कार्बेट  (Jim Corbette) कुमाऊ नरभक्षियों  (Man eaters of Kumaun) का शिकार कर रहे थे। आम लोगो को भी कभी कभार जंगली शिकार हाथ लग जाता. ए़क बार ऐसे ही कहीं शिकार भात खा रहे थे कि ए़क बाबाजी आ गए। 'नमो नारायण बाबा जी' कहने के बाद नाना जी ने उन्हें भात खाने के लिए आमन्त्रित किया। बाबा जी कुछ सब्जी के साथ भात खाने लगे, किंतु बाकि लोगों को शिकार देखकर उनका मन ललचा गया।
मनः स्थिति भांप कर नाना जी ने बाबा जी से पूछा : "आप भी लेंगे क्या?"
बाबाजी बोले: "अच्छा थोड़ा रस-रस छोड़ दो "
नानाजी ने करछी से सावधानी पूर्वक रस देने की कोशिश करी।
बाबाजी ने कहा : " बेटा गेलकी भी गिर जाए तो गिरने दो"
नानाजी ने कुछ बाबाजी की थाली में टुकड़े भी डाल दिए। बाबाजी ने खूब चाव से खाया और विदा ली।
-प्रेम, जुलाई ४, 2009

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