रविवार, फ़रवरी 07, 2010

prem diwana

ये कविता मेरे ए़क अजीज दोस्त ज़हूर ने उस ज़माने में लिखी थी, जब मेरी शादी होने वाली थी.    पेश है:
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आप से अब दोस्ताना हो गया ,
रोज मिलने का बहाना हो गया.

पहले मिलते थे फकत इतवार को,
अब तो हर दिन आना जाना हो गया.

दो घडी देखूं नहीं तुमको अगर,
यूँ लगे जैसे जमाना हो गया.

देख कर ही उनको भर जाता हैं पेट
उनका आना मेरा खाना हो गया.

हर अदा पे उनकी में लट्टू हुआ
दिल चकरघिन्नी दीवाना हुआ.

वो भी चल निकला हैं अब बाज़ार में,
नोट जो कुछ था पुराना हो गया.

आई हैं गट्ठर के गठ्ठर चिट्ठियां,
घर हमारा डाक -खाना हो गया.

यार अपना फूल कर कुप्पा हुआ,
जो था तम्बू शामियाना ho gaya.

अब तो हमसे उस तरह मिलते नहीं,
आशु औ आलम बेगाना हो गया.

बस सिलिंडर ही सिलिंडर हो जहाँ,
प्रेम तेरा आशियाना हो गया.

                                 ०००  आलम-ए-ज़हूर (१९९३)

(इस सन्दर्भ में ये बताना जरूरी है कि उन दिनों मैंने कुकिंग गैस सिलिंडर से सम्बंधित ए़क -आध कवितायेँ (dekhen april 2009 ki pravistiyan ) लिखी थी.  'असली कविता' वाले मेरे दोस्तों ने   इसे "सिलिंडर शैली" का नाम दिया था.  असर ये, कि ये कविता उसी शैली का ए़क नायाब नमूना है.- प्रेम , फ़रवरी ७, २०१०).

3 टिप्‍पणियां:

  1. बस सिलिंडर ही सिलिंडर हो जहाँ,
    प्रेम तेरा आशियाना हो गया.

    वाह वाह !
    बहुत खूबसूरत अंदाज़ -ए - बयां !

    और बोल भी सुन्दर :)

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  2. बाई द वे यह कविता दो लोगों ने मिलकर लिखी थे .... ज़हूर और यह खाकसार ...... :)

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